Vaishno devi ki katha
वैष्णो देवी की कथा
वैष्णो देवी को सामान्यतः माता रानी और वैष्णवी के नाम से भी जाना जाता है।
Vaishno devi katha
वैष्णो देवी का एक महान भक्त था जिसका नाम पंडित श्रीधर था, माता उसकी भक्ति से बहुत खुश हुई जब एक बार श्रीधर पंडित पर माता को लेकर सवाल उठे तो माता ने उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर उसकी लाज बचाई। एवं सभी को अपने आस्तित्व का परिचय दिया माता ने पूरे जगत को अपनी महिमा एवं दिव्यता से अपने भक्तों की सदैव रक्षा की है, तब से आज तक लोग इस तीर्थस्थल की यात्रा करते हैं और माता की कृपा पाते है और अपने कष्टों को दूर करतें है, एवं सुखमय अपना जीवन बनाते है ।
एक बहुत की प्राचीन स्थान जो कटरा नाम से प्रचलित था, उससे कुछ दूरी पर स्थित हंसाली गांव में मां वैष्णवी के भक्त श्रीधर पंडित निवास करते थे। उनकी पत्नि का नाम सुलोचना था, और वह भी माता की परम भक्त थी एवं श्रीधर के साथ माता की पूजा करती थी। दुर्भाग्यपूर्ण वे निःसंतान होने से दुःखी रहते थे। एवं गांव वाले भी दिन प्रतिदिन उनका तिरस्कार करते रहते थे। एक दिन उन्होंने अपने घर में नवरात्रि में माता पूजन रखा एवं नवरात्रि पूजन के लिए कुंवारी कन्याओं को गांव से बुलवाया। मां वैष्णो देवी कन्या वेश में उन्हीं के बीच आ बैठीं। सभी का श्रीधर पंडित एवं उसकी पत्नि ने बड़ी श्रद्धा के साथ पूजन किया एवं पूजन के बाद सभी कन्याएं तो चली गईं, परन्तु मां वैष्णो देवी वहीं रहीं और श्रीधर से बोलीं, कि कल ‘सभी को अपने घर भंडारे का निमंत्रण दे आओ। श्रीधर पंडित घबरा गया और बोला है कन्या इतना अनाज तो हमारे पास नहीं है हम सभी गांव वालों को क्या खिलायेंगे तभी मां वैष्णों देवी ने कहा की आप चिंता न करें माता की कृपा से सभी ठीक हो जायेगा, श्रीधर ने उस दिव्य कन्या की बात मान ली और सम्पूर्ण गांव में भंडारे का संदेश पहुंचा दिया, वहां से लौटकर आते समय बाबा भैरवनाथ व उनके शिष्य गुरु गोरखनाथ जी के साथ उनके दूसरे सभी शिष्यों को भी भोजन का निमंत्रण दिया ।
भोजन का निमंत्रण पाकर सभी गांववासी अचंभित थे कि वह कौन सी कन्या है, जो इतने सारे लोगों को भोजन करवाना चाहती है? इसके बाद श्रीधर पंडित के घर में सभी गांववासी आना शुरू हो गया एवं भोजन के लिए सभी पंक्ति बनाकर बैठते जा रहे थे, तभी वहां वैष्णों देवी कन्या रूप में आकर माता ने एक विचित्र पात्र से सभी को भोजन परोसना शुरू किया. भोजन परोसते हुए जब वह कन्या भैरवनाथ के पास गई, तब भैरोनाथ ने माता कहा कि मैं तो खीर- पूड़ी की जगह मांस खाऊंगा और मदिरापान करूंगा ।
तब कन्या रूपी मां ने उसे समझाया कि यह ब्राह्मण के यहां का भोजन है, इसमें मांसाहार नहीं किया जाता. किंतु भैरवनाथ ने जान-बूझकर अपनी बात पर अड़ा रहा. जब भैरवनाथ ने उस कन्या को पकड़ना चाहा, तब मां ने उसके कपट को जान लिया, मां वायु रूप में बदलकर त्रिकूटा पर्वत की ओर उड़ चलीं. मायावी भैरवनाथ भी उनके पीछे गया और उनका पीछा करता त्रिकूटा पर्वत पर पहूंचा ।
माना जाता है कि मां की रक्षा के लिए पवनपुत्र हनुमान भी थे. हनुमानजी को प्यास लगने पर माता ने उनके आग्रह पर धनुष से पहाड़ पर बाण चलाकर एक जलधारा निकाली और उस जल में अपने केश धोए. आज यह पवित्र जलधारा बाणगंगा के नाम से जानी जाती है. इसके पवित्र जल को पीने या इसमें स्नान करने से श्रद्धालुओं की सारी थकावट और तकलीफें दूर हो जाती हैं एवं उनकी मनोकामना पूर्ण होती है।
इस दौरान माता ने एक गुफा में प्रवेश कर नौ माह तक तपस्या की. भैरवनाथ भी उनके पीछे वहां तक आ गया. तब एक साधु ने भैरवनाथ से कहा कि तू जिसे एक कन्या समझ रहा है, वह आदिशक्ति जगदम्बा है, इसलिए उस महाशक्ति का पीछा छोड़ दे. भैरवनाथ ने साधु की बात नहीं मानी. तब माता गुफा की दूसरी ओर से मार्ग बनाकर बाहर निकल गईं. यह गुफा आज भी अर्द्धकुमारी या आदिकुमारी या गर्भजून के नाम से प्रसिद्ध है।
अर्द्धकुमारी के पहले माता की चरण पादुका भी है. यह वह स्थान है, जहां माता ने भागते-भागते मुड़कर भैरवनाथ को देखा था. गुफा से बाहर निकल कर कन्या ने देवी का रूप धारण किया. माता ने भैरवनाथ को चेताया और वापस जाने को कहा. फिर भी वह नहीं माना. माता गुफा के भीतर चली गईं. तब माता की रक्षा के लिए हनुमानजी गुफा के बाहर थे और उन्होंने भैरवनाथ से युद्ध किया. भैरव ने फिर भी हार नहीं मानी. जब वीर लंगूर निढाल होने लगा, तब माता वैष्णवी ने महाकाली का रूप लेकर भैरवनाथ का संहार कर दिया, भैरवनाथ का सिर कटकर भवन से 8 किमी दूर त्रिकूट पर्वत की भैरव घाटी में गिरा, उस स्थान को भैंरोनाथ का मंदिर है एवं वह भैरोंनाथ के मंदिर नाम से जाना जाता है।
जिस स्थान पर मां वैष्णो देवी ने बाबा भैरवनाथ का वध किया, वह स्थान पवित्र गुफा अथवा भवन के नाम से प्रसिद्ध है. इसी स्थान पर मां महाकाली (दाएं), मां महासरस्वती (मध्य) और मां महालक्ष्मी (बाएं) पिंडी के रूप में गुफा में विराजमान हैं. इन तीनों के सम्मिलत रूप को ही मां वैष्णो देवी या मातारानी का रूप कहा जाता है।
कहा जाता है कि अपने वध के बाद भैरवनाथ को अपनी भूल का बहुत पश्चाताप हुआ और उसने मां से क्षमादान की भीख मांगी, माता वैष्णो देवी जानती थीं कि उन पर हमला करने के पीछे भैरव की प्रमुख मंशा मोक्ष प्राप्त करने की थी. उन्होंने न केवल भैरव को पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति प्रदान की, बल्कि उसे वरदान देते हुए कहा कि मेरे दर्शन तब तक पूरे नहीं माने जाएंगे, जब तक कोई भक्त, मेरे बाद तुम्हारे दर्शन नहीं करेगा. उसी मान्यता के अनुसार आज भी भक्त माता वैष्णो देवी के दर्शन करने के बाद करीब पौने तीन किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई करके भैरवनाथ के दर्शन करने जाते हैं, तभी उनकी यात्रा पूर्ण मानी जाती है एवं उनकी यात्रा सफल होती है।
इस बीच वैष्णो देवी ने तीन पिंड (सिर) सहित एक चट्टान का आकार ग्रहण किया और सदा के लिए ध्यानमग्न हो गईं. इस बीच पंडित श्रीधर अधीर हो गए. वे त्रिकुटा पर्वत की ओर उसी रास्ते आगे बढ़े, जो उन्होंने सपने में देखा था, अंततः वे गुफा के द्वार पर पहुंचे. उन्होंने कई विधियों से पिंडों की पूजा को अपनी दिनचर्या बना ली. देवी उनकी पूजा से प्रसन्न हुईं. वे उनके सामने प्रकट हुईं और उन्हें आशीर्वाद दिया. तब से श्रीधर और उनके वंशज देवी मां वैष्णो देवी की पूजा करते आ रहे हैं। आज भी बारहों मास वैष्णो देवी के दरबार में भक्तों का तांता लगा रहता है. सच्चे मन से याद करने पर माता सबका बेड़ा पार लगाती है, एवं सभी की झोली भरती है । खसकर नवरात्री में माता की सम्पर्ण भारतवर्ष में पूजा अर्चना की जाती है ।
प्रेम से बोलो – जय माता दी ।
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